शनिवार, 16 नवंबर 2013

मैं अपने जैसी ही हूँ

आज कल मुझे मेरे जैसी लड़कियां नही दिखती या फिर शायद मैं ही उन जैसी नही | लगता ही नही कि मैंने भी इसी दिल्ली से पढ़ाई की और आज यहीं पर काम भी कर रही हूँ | देखा जाए तो अपनी मेहनत और पढ़ाई की वजह से आज मैं कामयाब हूँ लेकिन न जाने क्यों, इस शहर की लड़कियों की सुंदरता और स्टाइल मुझे मेरी सफलता को पहचानने की हिम्मत ही नही देते| परसों ही मेरी दूर के रिश्ते की बहन ने मुझे कहा कि मुझे देख कर लगता ही नही कि मैं दिल्ली की पढ़ी हूँ | 
जब भी मेट्रो के लेडीज कोच मे जाती हूँ तो बीस मिनट का समय, अपने और उस कोच में बैठी दूसरी लड़कियों से बीस तरह के अंतर देखने मे बीत जाता है | उन सभी के हाथ दूर से देखने मे मुलायम दिखते हैं, शायद 'मैनीक्योर' करवाती होंगी | मुझे शुरू से ही हाथों के बड़े नाखून पसंद नही थे , काम करने में काफी दिक्कत होती थी | मेट्रो में इन लड़कियों के हाथ देखते ही मैं भी अपना बायाँ हाथ, दायें हाथ के ऊपर रख देती हूँ , आजकल बाएँ हाथ के नाखून बढ़ा लिए हैं | मेरा दायाँ हाथ मुझे दिखने मे काफी सख्त दिखता है मैनीक्योर के बाद भी वैसा ही लगता है, एकदम सख्त | 
ऊंचाई कम है मेरी लेकिन सपनों की उड़ान बहुत ही ऊंची | पर इन लड़कियों की लंबाई और ऊंची हील के सामने शायद कुछ भी नही | माँ ने हमेशा हील पहनने से मना किया लेकिन पिछले महीने ही उनसे झगड़ कर हील वाली चप्पल ले आई | आदत न होने की वजह से इस ऊंचाई के साथ ज्यादा दिन नही रह पाई और अब 'फ्लैट' चप्पल ही पहनती हूँ | हाँ बाकी लड़कियों की तरह पिज्जा शौक से ही खाती हूँ | मैं अंग्रेजी भी जानती हूँ और कुछ हद तक बोल भी पाती हूँ लेकिन वो पतली, गोरी और बिलकुल सीधे बालों वाली लड़कियां हिन्दी में ही बात करती है लेकिन तब भी अच्छी दिखती है, पता नहीं कैसे | मुझमे शायद वैसा एटीट्यूड ही नही | कमाई मेरी भी कम नही पर शायद उसे अपने ऊपर कैसे खर्च किया जाये जिससे मैं भी स्टाईलिश दिख पाऊँ, यह मैं नही जानती | उनका चेहरा एक दम साफ और फ्रेश दिखता है हर वक़्त | समझ में नही आता कैसे ? न तो काजल और न 'आई लाइनर' टस से मस होता है | उनके मेकअप का भारीपन पता नही कैसे मेरे मन का भार बढ़ा देता है | अंडरग्राउंड मेट्रो तो मानो अब दुश्मन सी लगती है... इस मेट्रो ट्रेन के शीशे में दिख रहे उन चेहरो मे अपना चेहरा औड वन आउट जैसा ही लगता है |   
पिछले दिनो एक पुरानी दोस्त का फोन आया |उसने फ़ेसबुक पर फ्रेंड रिकवेस्ट भेजने की बात के साथ फोन रखा | जब दोस्त की फ्रेड रिकवेस्ट स्वीकार की तो उसकी प्रोफ़ाइल में तस्वीरें देखने के बाद मैं झट से शीशे के पास गई और मन मे सोचा कि वो भी तो मेरी ही उम्र की है तो वो कैसे उन्ही लड़कियों की तरह दिख रही है ? और आजकल तो मेरी नई प्रोफ़ाइल फोटो पर लाइक भी नही आते | परेशानी कहूँ या जलन, इसकी वजह से शाम की पूजा भी नही कर पाई | पूरी रात इंटरनेट पर पेर्सनैलिटी इम्प्रूवेमेंट पर गूगल करती रही और अगले दिन रोज की तरह ऑफिस के लिए तैयार होकर मेट्रो के लेडीज कोच मे बैठी मैं किताब पढ़ रही थी, किताब पढ़ते पढ़ते ये सोचने लगी कि मैं आखिर वो क्यों देखूँ जो मेरे पास नही बल्कि वो क्यों नही जो मेरे पास है | मैं शायद अपने जैसी ही हूँ और अपने लिए मैं खुद को दूसरों में क्यों देखूँ ? तभी दूर से एक लड़की मुझे देख रही थी | उसकी आखों मे एक रंजिश सी दिख रही थी | उसे देख कर ऐसा लगा मानो वो आज मेरे बीते कल मे जी रही हो | 

मंगलवार, 18 जून 2013

सरकारी शिक्षा का सच

सरकारी शिक्षा का सच
अंशु सचदेवा
भारत देश में सर्व शिक्षा अभियान सम्पूर्ण साक्षरता पा लेने का उद्देश्य लिए हुए है| भारतीय प्राथमिक शिक्षा मे सरकार हर साल कुछ नीतियाँ , कुछ निर्णय लेती है | ऐसा ही एक निर्णय था गरीब घर के बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में 25 प्रतिशत आरक्षण देने का | जैसे ही ये खबर आई गरीब और मजबूर तबके अपने बच्चों के लिए नए सपने देखने लगे | सरकार के आदेशानुसार प्राइवेट स्कूलों मे गरीब बच्चों को आरक्षण मिल भी गया और आज वो बच्चे बड़े प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा ग्रहण भी कर रहे हैं | ये स्कूल ऐसे स्कूल हैं जहां उच्च वर्गीय और उच्च – मध्यम परिवारों के बच्चे आते है | ये वे स्कूल हैं जिनका भौतिक वातावरण आधुनिक है | जहां बच्चों को पढ़ाने के लिए ज़ोर दिया जाता है और समय समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रम और कला आदि बच्चों को सिखाया जाता है | हर महीने अभिभावकों और शिक्षकों की मीटिंग होती है | बच्चे के सम्पूर्ण विकास की ओर ध्यान दिया जाता है | इस तरह के विद्यालयों मे यदि एक गरीब परिवार का बच्चा प्रवेश लेगा तो निश्चय ही उसका विकास होगा | पर गौर करने वाली बात यह है कि यह विकास किस तरह का होगा | कहीं यह सामाजिक अंतर का विकास तो नही है ?
वहीं दूसरी ओर सरकारी विद्यालयों मे ऐसा कुछ भी नहीं होता विशेषत: छोटे शहरों और गावों मे | ना तो आधुनिक वातावरण और न ही नयी नयी गतिविधियों से शिक्षण | अगर नया कमरा बन भी जाये तो उसकी दीवारें इतनी उदासीन होती है कि स्कूल के प्रति कोई लगाव ही न पैदा हो | इन सरकारी स्कूल के शिक्षकों से जब इस आरक्षण के विषय में बात की जाये तो जवाब आता है , “ये लोग गरीब है , इनके बच्चे अच्छे स्कूलों मे पढ़ जाएंगे तो अच्छा होगा |” वहीं कुछ शिक्षक इसे सरकार की चाल मानते हैं और बताते है कि सरकार चाहती है कि सभी बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढे और ऐसा कर के सरकार प्राइवेट स्कूलों की पकड़ को मजबूत बना रही है और जिन गरीब बच्चों को इन प्राइवेट स्कूलों में आरक्षण नही मिल पता उनके माता पिता का ये कहना होता है कि हमारे पास भी यदि पैसे होते तो हम भी अपने बच्चे को प्राइवेट स्कूल मे दाखिला करवा देते |
असल बात तो ये है कि सरकार ने अपने इस फैसले से अपनी कमजोरी को ही स्वीकार किया है | मतलब सरकार ने यह मान लिया है कि प्राइवेट स्कूल , सरकारी विद्यालयों से बेहतर हैं और गरीब परिवारों के बच्चों को भी इन विद्यालयों मे पढ़ने का अवसर मिलना चाहिए | इस साल के बजट में शिक्षा के लिए 64 हज़ार करोड़ रुपए का आवंटन हुआ | क्यों सरकार सरकारी विद्यालयों का भी ढांचा आधुनिक नहीं बनाती ? क्यों सरकारी अध्यापकों को नई तकनीकी शिक्षण गतिविधियों की ट्रेनिंग नही दी जाती ? क्यों सरकारी विद्यालयों को प्राइवेट स्कूलों जैसा भौतिक रूप और शिक्षकों को उच्च स्तर की ट्रेनिंग नहीं दी जाती ? वैसे भी आज के समय मे यदि गरीब परिवारों की पहुँच अपने बच्चे को बड़े प्राइवेट स्कूलों मे दाखिला दिलवाने की नहीं है तो भी वे सरकारी विद्यालयों के रूप और प्रकृति से खुश नही जान पड़ते हैं | वहीं अन्य प्राइवेट स्कूलों मे मिल रही शिक्षा से वाकिफ हैं और अपने बच्चों को को बेहतर शिक्षा देने के पक्ष मे हैं |
यदि प्राइमरी शिक्षा की बात की जाए तो विडम्बना की बात यह है कि जिस केरल राज्य मे पूर्ण साक्षरता का डंका बजा कर सरकार अपना महिमामंडन करती रही है असर रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2012 में , इस राज्य मे 60 प्रतिशत से अधिक बच्चे प्राइवेट स्कूलों मे पढ़ने जाते हैं | इसी वर्ष में पूरे देश में प्राइवेट विद्यालयों मे नामांकन 28.3 प्रतिशत है |
सच तो यह है कि वर्तमान में भी हमारे देश में 6 से 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों का 67 प्रतिशत हिस्सा अब भी सरकारी स्कूलों मे जाता है | लेकिन उससे भी बड़ा सच तो यह है कि ग्रामीण इलाकों में हर साल प्राइवेट स्कूलों मे नामांकन दस प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है और यह सिलसिला इसी तरह से चलता रहा तो वर्ष 2018 तक भारत देश के ग्रामीण इलाकों मे 50 प्रतिशत बच्चे इन प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे होंगे | सोचने वाली बात तो यह है कि सर्व शिक्षा अभियान का सम्पूर्ण साक्षरता पा लेने उद्देश्य किस तरह से पूरा हो रहा है |


रविवार, 17 मार्च 2013

शिक्षा की हवाई यात्रा


अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट काउंसिल के अनुसार भारत के तीन एयरपोर्ट दिल्ली , मुंबई  और हैदराबाद विश्व के पहले पाँच एयरपोर्ट्स मे शुमार किए गए हैं | यह एक अच्छी बात है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना रहा है | लेकिन इस खबर के आने से कुछ दिन पहले एक और खबर आई थी कि भारत का कोई भी विश्वविद्यालय विश्व के पहले 200 विश्वविद्यालयों की सूची में भी जगह नहीं बना पाया है | इन खबरों से साफ पता चलता है कि भारत एक चमचमाते कालीन के नीचे कितनी मिट्टी छिपाये हुये है | हालांकि इस बार के बजट में शिक्षा के क्षेत्र में 65 हज़ार करोड़ रुपए आवंटित किए जाने की घोषणा हुई है जो कि पिछले बजट की तुलना में ­­­­­­7% अधिक है |
जहां एक तरफ देश में विमान सेवा के उपभोग में लगातार बढ़ोतरी हो रही है वहीं प्राथमिक शिक्षा में ड्रॉप आउट्स की संख्या शिक्षा का कानून आ जाने के बाद पिछले वर्ष की तुलना में बढ़ गई है | तमिलनाडु और गुजरात जैसे राज्यों में शिक्षा का कानून लागू हो जाने के बाद ड्रॉप आउट्स का अनुपात वर्ष 2011 में 0.1% से 1.2% तक बढ़ गया है | और गुजरात में 0.4% की बढ़ोतरी हुई है | वहीं भारतीय विमान सेवा में वर्ष 2011 में जुलाई तक यात्रियों की संख्या में 22.3% का इजाफा हुआ जो वर्ष 2010-11 में हुई स्नातकों की संख्या में वृद्धि का लगभग 5 गुना है | एक तरफ तो भारत में विमान से यात्रा करने वालों को उपयुक्त और बेहतर से बेहतर सुविधाएं दी जा रही हैं क्योंकि उनकी संख्या में हर साल औसतन 18 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो रही है तो दूसरी और शिक्षा की गुणवत्ता के गिरते स्तर और आरटीई के उद्देश्य को पूरा नही किया जा रहा है | और कम होते हुये आकड़ों के प्रति कोई विशेष एवं प्रभावी कदम नही उठाएँ जा रहें हैं | बेहतर सुविधाओं से लैस एयरपोर्ट विश्व मे नाम कमा रहे हैं तो वहीं अब भी हर 10 मे से एक सरकारी स्कूल में पीने के पानी की व्यवस्था खराब है और हर पाँच में से एक स्कूल में ही कम्प्युटर है |
आज हमारे देश में जितने लोग विमान यात्रा का लुत्फ उठाते हैं उससे भी अधिक बच्चे अब भी स्कूल नही जाते हैं | वैश्वीकरण के इस दौर में दुनिया के साथ कदम ताल करने में कोई बुराई नही यदि हमारी सरकार देश के सभी नागरिकों को समान अवसर दे | एक तरफ तो विमान सेवाएँ विश्वरूपी माहौल देने में लगी हुई हैं तो दूसरी ओर अब भी अनेक सरकारी स्कूल आधारभूत सुविधाओं से वंचित हैं |
एक रिपोर्ट से यह बात सामने आई है कि हमारे देश में हर महीने 51 लाख लोग विमान से सफर करते हैं | अभी इस समय भारत की विमान सेवा विश्व की नौवी सबसे तेज़ बढ़ती हुई विमान सेवा है | और साल 2020 तक भारतीय विमान सेवा के विश्व तीसरे पायदान पर पहुचने के आसार हैं | लेकिन शिक्षा के मामले में स्थिति बिलकुल उलट है | यहाँ कक्षा एक मे नामांकित होने वाले बच्चों में से 50 प्रतिशत बच्चे कक्षा 8 तक पहुँचते पहुँचते अपनी पढ़ाई छोड़ देते है और हर साल 27 लाख बच्चे ड्रॉप आउट हो जाते हैं |
शिक्षा को लेकर सरकार जो भी कदम उठा रही है वे इतने प्रभावी नही हो पा रहे है जितने विमान सेवाओं की उत्कृष्टता बढ़ रही है | यह हमारे देश के लिए एक चिंताजनक विषय है केवल कानून बना लेने और अनुदान बढ़ा देने से हम विश्व में जगह नही बना सकते | शिक्षा की समस्याओं पर गहन रूप से चिंतन करना होगा | या फिर हम केवल सीमित क्षेत्र में ही संसार में अपनी जगह बना कर खुश होना चाहते हैं |

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

शिक्षा व्यवस्था की लाचार अवस्था -" फ्री मे शिक्षा"



जब भी हम फ्री का नाम सुनते हैं तो हमारे कान खड़े हो जाते हैं| फ्री का ट्रेंड जब से आया है तब से लोग गुणवत्ता से ज्यादा फ्री वाले समान की ओर आकर्षित होते हैं | फ्री मे आने वाला सामान पैसे से खरीदे गए सामान से ज्यादा अच्छा लगने लगता है | उत्सवों के मौकों पर तो दो के ऊपर चार चीज़ें फ्री मे मिलने लगती हैं | वैश्वीकरण के बाद से इस प्रथा का चलन और भी तेज़ी से हुआ है | एक उत्पाद को बेचने के लिए उसके साथ एक ओर उत्पाद फ्री के नाम पर बेचा जाए और यही है बिन्दु बाजारवाद के पनपने का | इस फ्री के नाम के कीड़े ने न सिर्फ बाज़ार को काटा है बल्कि हमारी सरकारी व्यवस्था ने भी इसका इस्तेमाल जनता को लुभाने के लिए किया है | अब चाहे वो पोलियो की दवा हो या फिर प्राथमिक शिक्षा | देखिये न प्राथमिक शिक्षा आपको फ्री के नाम पर मिल रही है | लेकिन वही बाज़ार के लोग इस फ्री प्रोडक्ट से क्यों नहीं आकर्षित हो रहे हैं ? जबकि शिक्षा के बाज़ार मे जितनी महंगी शिक्षा उतनी महंगी नौकरी का चलन चल रहा है | और जो लोग इस फ्री उत्पाद का इस्तेमाल कर रहे हैं वे इसके चंगुल मे मजबूरी से फंसे है |
समय के साथ साथ फ्री की परिभाषा मे भी बदलाव आया है | जो उत्पाद खरीदे गए सामान के साथ मिले तो उसका फिर भी कुछ सम्मान हो लेकिन बिलकुल फ्री मे यदि कोई सामान मिले तो दाल मे कुछ काला है | आज प्राथमिक शिक्षा हमारी सरकार के अलावा कई अन्य संस्थान भी दे रहें हैं लेकिन फ्री मे नहीं | सरकार द्वारा शिक्षा का यह फ्री प्रोडक्ट न तो अभिभावकों को आकर्षित कर रहा है न ही बच्चों को | मार्केटिंग का फंडा तो यही कहता है कि यदि फ्री वाले प्रॉडक्ट से उत्पाद नही बिक रहा है तो फ्री वाले सामान की मात्रा बढ़ाओ या कोई अन्य प्रॉडक्ट उतने ही कीमत का उसके साथ फ्री में दिया जाए जो कि पहले वाले फ्री प्रॉडक्ट से ज्यादा आकर्षित करे |  या फिर असली उत्पाद की गुणवत्ता से समझौता कर लो | प्रतियोगिता और मुनाफा कमाना ही फ्री प्रॉडक्ट को जन्म देने की जड़ दिखाई देती है | प्राथमिक शिक्षा मे तो देश भर मे छोटे से छोटे गाँव से लेकर बड़े बड़े से शहर मे प्रतियोगिता है | लेकिन फिर भी हमारी सरकार अपने प्रॉडक्ट को मजबूत नही बना रही है | कहा जाता है कि सरकार देश के हित में कम करती है इसलिए वह प्रतियोगिता और मुनाफे से कोसों दूर रहती है | लेकिन सरकार  इस सुंदर वाक्य के पीछे अपनी ही कमजोरी को छुपाती है | अपने उत्पाद की गुणवत्ता को कैसे सुधारा जाए इसके लिए उनके पास कोई फंडा नही है और रही बात मुनाफे की , तो वह तो अनेक साधनो से हो ही रहा है | चाहे इस प्रतियोगिता मे बिलकुल पीछे ही सरकार क्यों न भाग रही हो |
असल मे फ्री जैसा कुछ होता ही नही है | जब भी बाज़ार मे किसी भी उत्पाद के साथ कुछ फ्री मे मिल रहा होता है तो कंपनी बिना कोई नुकसान उठाए उस प्रॉडक्ट को फ्री मे बाज़ार मे उतारती है | फ्री वाले उत्पाद की कीमत  मूल उत्पाद की कीमत मे सम्मिलित होती है | और जब बात करें शिक्षा की तो वह भी फ्री मे नही मिलती है | जनता के टैक्स से ही सरकार ये जिम्मा उठाती है | हालांकि सरकार आए दिन नई नई योजनाएँ चला रही है लेकिन फिर भी फ्री शिक्षा अपना जादू नही चला पा रही है | इसका कारण समाज मे मौजूद कई रीतियाँ और परम्पराएँ हो सकती हैं जैसे कि लड़कियों को स्कूल मे लाने के लिए सरकार ने बहुत सारी नीतियाँ बना दी हैं । इससे लड़कियां स्कूल तो आने लगी हैं लेकिन सिर्फ उन योजनाओं का पैसा लेने के लिए | शिक्षा की महत्ता के नाम पर नही | मार्केटिंग का ही एक और फंडा यह है कि प्रॉडक्ट कि लौंचिंग से पहले उस उत्पाद का ब्रांड मैनेजमेंट हो जाए | लेकिन शिक्षा को लेकर इस तरह की ब्रांडिंग कुछ याद नही आती है | याद आता है जब काँग्रेस सरकार ने किसानो का 70 हज़ार करोड़ रुपए के ऋण को माफ किया था तो सब नज़र आ रहा था कि हमारे देश की सरकार ऐसा कुछ महान काम कर रही है | मार्केटिंग के ही विभिन्न पहलुओं का इस्तेमाल कर उन्होने यह बात लगभग देश के हर इंसान तक पहुंचा दी | 
वैसे तो सरकार ने अपने कई कार्यक्रमों मे सफलता भी प्राप्त की है जैसे कि पोलियो अभियान | उसके कई कारण हो सकते हैं | इस पोलियो अभियान मे सरकार का दूसरा कोई प्रतियोगी ही नही था | सरकार को ही गाँव गाँव तक जाकर ये काम पूरा करना था और बखूबी यह काम पूरा हुआ | सरकार ने कई तरह के तरीके अपनाएँ ताकि अपने काम मे वह सफल हो पाये | इस तरह मार्केटिंग के अलग अलग तरीके अपना कर कैसे काम किया जाए और वो भी सार्वजनिक हित में यह एक बड़ा मुद्दा है |
शिक्षा कभी भी सरकार के एजेंडे का हिस्सा नही रहा है शायद इसलिए ही मार्केटिंग के अनेक तरीके इस क्षेत्र मे विफल होते दिखाई दे रहे है | सरकार को यह देखना होगा कि किस कड़ी को मजबूत करने की आवश्यकता है | शिक्षक इस दिशा मे महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं | शिक्षा की इस प्रतियोगिता में अन्य प्रतियोगियों से कैसे बाज़ी मारी जाए यह जानना बहुत जरूरी है | अगर सरकार यह जरूरी माने तभी ऐसा संभव है | नही तो उत्पाद की गुणवत्ता से समझौता तो हो ही रहा है |