बहु-मत से इतर
कुछ दिन पहले टीवी पर श्रीदेवी अभिनीत फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ देख कर उसने सोचा कि अपने परिवार में रह कर उसे भी पढ़ना-लिखना चाहिए और थोड़ी बहुत बोलने लायक अंग्रेजी सीख लेनी चाहिए। फिर क्या था! अंगरेजी से हिंदी का शब्दकोश उठाया और अंगरेजी अखबार, जो हर शाम को बिल्कुल नई तह के साथ पुराने अखबारों के साथ रख दिया जाता था, उसे खोल कर पढ़ना शुरू किया। शुरुआत के साथ ही बेटे की आवाज आई- ‘मां, क्या पढ़ने में लगी हो! बहुत भूख लगी है मुझे! जल्दी से कुछ खाने को दो।’ इसके बाद पति महोदय ने कहा कि कल के लिए कपड़ों पर इस्तरी कर दो! इसके बाद रसोईघर में खाना बनाने से लेकर घरेलू कामों को समेट के क्रम में पता ही नहीं चला कि कब रात के ग्यारह बज गए। वह थकी हुई सो गई इस प्रण के साथ कि कल से हर रोज आधा घंटा जरूर पढ़ने के लिए निकालेगी।
अगले दिन जब बेटे ने खाने के लिए आवाज लगाई तो मां पूजा कर रही थी। इसी बीच पिताजी धीरे से अपने लाडले को बोले- ‘ज्यादा जोर से मत बुलाओ। मां को पूजा करने दो।’ बेटा बोला- ‘हां-हां, मुझे पता है!’ दूसरी ओर, वह मन ही मन सोचने लगी कि इन सबको बस मेरा पूजा करना ही काम दिखता है! अखबार पढ़ते समय या टीवी देखते समय ही ये मुझे क्यों आवाज लगाते हैं! और भी बहुत काम हैं, जिसमें मुझे शांति चाहिए!
चुनावी दौर है और ऐसे समय में हर तबके को अलग-अलग राजनीतिक दलों की ओर से रिझाने की कोशिश की जा रही है। किस भी गली-मुहल्ले में जाने पर कहीं न कहीं चुनावी मुद्दे पर चर्चा सुनने को मिल जाती है। सवाल है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में कितनी महिलाएं प्रतिनिधित्व कर रही हैं। क्या सचमुच भारत की महिलाएं अपने मत की महत्त्व समझती हैं या फिर उनका मत एक बहू या बेटी का मत बन कर ही रह जाता है? इस अनभिज्ञता और मुख्यधारा से दूरी के क्या कारण रहे हैं? इतने मौके और माध्यम होने के बावजूद महिलाओं की भागीदारी इतनी कम क्यों दिखाई पड़ती है? एक जागरूक मध्यवर्गीय परिवार की महिला भी राजनीति के दंगल मे दबी हुई-सी दिखती है। इसका कारण यह नहीं कि वे इन सब बातों के बारे में जानना या समझना नहीं चाहतीं। लेकिन महिलाओं की स्थिति पहले से ही इतनी द्वंद्व में फंसी और उलझी हुई है इस समाज में कि कई बार जानकारियों से लैस होना भी उन्हें मुखर नहीं होने देता। दूसरी ओर, जानकारियों का अभाव उनकी कमजोर सामाजिक अवस्थिति के लिए जिम्मेदार है, वे इस कारण की पहचान करने में भी कई बार पिछड़ जाती हैं।
विडंबना यह है कि इस तरह की समस्याएं केवल बाहरी समाज से ही नहीं, बल्कि स्त्रियों के दैनिक जीवन का हिस्सा बनती जा रही हैं। एक शोध के मुताबिक सत्तर फीसद भारतीय महिलाएं अवसाद की शिकार हैं और इसकी मुख्य वजहें उनके घरों में होने वाले कलह और द्वेष से उपजी होती हैं। ऐसे समय में उससे इस तरह की उम्मीद रखना कि वह दुनिया भर की जानकारी रखे और घरेलू जिम्मेदारियों में भी कोई कमी न करे, अपने आप में एक प्रहसन है। इसके अलावा, अगर कोई महिला अखबार पढ़ती है तो उसके लिए समय देने को कोई परिवार और समाज तैयार नहीं है। लेकिन अगर वह पूजा-पाठ में मग्न रहती है तो समाज और परिवार उसे न केवल जरा-सा भी बाधा नहीं पहुंचाता है, बल्कि उससे खुश भी होता है। यह एक ऐसी यथास्थिति को बनाए रखने का जाल है जिसमें स्त्री अपनी कमजोर सामाजिक हैसियत से ऊपर नहीं उठ पाती है।
कुछ दिन पहले टीवी पर श्रीदेवी अभिनीत फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ देख कर उसने सोचा कि अपने परिवार में रह कर उसे भी पढ़ना-लिखना चाहिए और थोड़ी बहुत बोलने लायक अंग्रेजी सीख लेनी चाहिए। फिर क्या था! अंगरेजी से हिंदी का शब्दकोश उठाया और अंगरेजी अखबार, जो हर शाम को बिल्कुल नई तह के साथ पुराने अखबारों के साथ रख दिया जाता था, उसे खोल कर पढ़ना शुरू किया। शुरुआत के साथ ही बेटे की आवाज आई- ‘मां, क्या पढ़ने में लगी हो! बहुत भूख लगी है मुझे! जल्दी से कुछ खाने को दो।’ इसके बाद पति महोदय ने कहा कि कल के लिए कपड़ों पर इस्तरी कर दो! इसके बाद रसोईघर में खाना बनाने से लेकर घरेलू कामों को समेट के क्रम में पता ही नहीं चला कि कब रात के ग्यारह बज गए। वह थकी हुई सो गई इस प्रण के साथ कि कल से हर रोज आधा घंटा जरूर पढ़ने के लिए निकालेगी।
अगले दिन जब बेटे ने खाने के लिए आवाज लगाई तो मां पूजा कर रही थी। इसी बीच पिताजी धीरे से अपने लाडले को बोले- ‘ज्यादा जोर से मत बुलाओ। मां को पूजा करने दो।’ बेटा बोला- ‘हां-हां, मुझे पता है!’ दूसरी ओर, वह मन ही मन सोचने लगी कि इन सबको बस मेरा पूजा करना ही काम दिखता है! अखबार पढ़ते समय या टीवी देखते समय ही ये मुझे क्यों आवाज लगाते हैं! और भी बहुत काम हैं, जिसमें मुझे शांति चाहिए!
चुनावी दौर है और ऐसे समय में हर तबके को अलग-अलग राजनीतिक दलों की ओर से रिझाने की कोशिश की जा रही है। किस भी गली-मुहल्ले में जाने पर कहीं न कहीं चुनावी मुद्दे पर चर्चा सुनने को मिल जाती है। सवाल है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में कितनी महिलाएं प्रतिनिधित्व कर रही हैं। क्या सचमुच भारत की महिलाएं अपने मत की महत्त्व समझती हैं या फिर उनका मत एक बहू या बेटी का मत बन कर ही रह जाता है? इस अनभिज्ञता और मुख्यधारा से दूरी के क्या कारण रहे हैं? इतने मौके और माध्यम होने के बावजूद महिलाओं की भागीदारी इतनी कम क्यों दिखाई पड़ती है? एक जागरूक मध्यवर्गीय परिवार की महिला भी राजनीति के दंगल मे दबी हुई-सी दिखती है। इसका कारण यह नहीं कि वे इन सब बातों के बारे में जानना या समझना नहीं चाहतीं। लेकिन महिलाओं की स्थिति पहले से ही इतनी द्वंद्व में फंसी और उलझी हुई है इस समाज में कि कई बार जानकारियों से लैस होना भी उन्हें मुखर नहीं होने देता। दूसरी ओर, जानकारियों का अभाव उनकी कमजोर सामाजिक अवस्थिति के लिए जिम्मेदार है, वे इस कारण की पहचान करने में भी कई बार पिछड़ जाती हैं।
विडंबना यह है कि इस तरह की समस्याएं केवल बाहरी समाज से ही नहीं, बल्कि स्त्रियों के दैनिक जीवन का हिस्सा बनती जा रही हैं। एक शोध के मुताबिक सत्तर फीसद भारतीय महिलाएं अवसाद की शिकार हैं और इसकी मुख्य वजहें उनके घरों में होने वाले कलह और द्वेष से उपजी होती हैं। ऐसे समय में उससे इस तरह की उम्मीद रखना कि वह दुनिया भर की जानकारी रखे और घरेलू जिम्मेदारियों में भी कोई कमी न करे, अपने आप में एक प्रहसन है। इसके अलावा, अगर कोई महिला अखबार पढ़ती है तो उसके लिए समय देने को कोई परिवार और समाज तैयार नहीं है। लेकिन अगर वह पूजा-पाठ में मग्न रहती है तो समाज और परिवार उसे न केवल जरा-सा भी बाधा नहीं पहुंचाता है, बल्कि उससे खुश भी होता है। यह एक ऐसी यथास्थिति को बनाए रखने का जाल है जिसमें स्त्री अपनी कमजोर सामाजिक हैसियत से ऊपर नहीं उठ पाती है।
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