भारतीय शिक्षण व्यवस्था में गुरु का स्थान सदैव से ही अहम रहा है | प्राचीन काल की गुरु शिष्य परंपरा तो पूरे विश्व में जानी जाती थी | लेकिन समय के साथ साथ भारतीय गुरु एक सहायक के रूप में सामने आया | उसकी भूमिका बच्चे के अंदर ज्ञान भरने की नही बल्कि उसके अंदर छिपे ज्ञान और कौशल को मुखरित करने की थी |
एक समय था जब गुरु ही ब्रह्मा और गुरु ही सर्वेसर्वा था | पहले एक बच्चा गुरु की ही शरण में कई वर्ष रहता और जीवन की शिक्षा ग्रहण करता | लेकिन अब वातावरण कुछ और ही है पूरे देश में शिक्षा को लेकर एक अलग ही माहौल है | विभिन्न राज्यों में प्राथमिक शिक्षा की अवस्था अत्यंत सोचनीय है |
जो शिक्षक समाज का एक प्रभावी व्यक्ति था वहीँ अब वो एक सरकारी नौकर ही बन कर रह गया है | उसके लिए इस पद कोई महत्ता बची नही है | उसे न तो लगाव है बच्चों से, न पद से | दोष ढूंढे तो वो खुद भी इस बदलाव का पीड़ित है | ट्रेनिंग के माध्यम से सरकार अपनी जिम्मेदारी को नाम के तौर पर पूरा तो कर रही है लेकिन शिक्षक और बच्चे उससे कितना लाभ उठा पाते हैं यह तो वर्तमान स्थितियां देखते ही बनता है | ट्रेनिंग के नाम पर केवल उपस्थिति दर्ज हो रही है | यह सच है कि शिक्षक को ऐसा माहौल दिया जा रहा है जहाँ वह अपने पद से ऊब चुका है | और सभी परिस्थितियां इतनी उदासीन है कि वह कुछ बोलना भी नही चाहता | उसका मानदेय ही उसकी जरुरत बन गया है | और यदि मानदेय या भत्ते को लेका कुछ कमियां हो तो पूरे देश में शिक्षक आन्दोलन खड़े हो जाते है | पिछले दस वर्षों से शिक्षकों ने अपने कौशल कला और गुणवत्तापूर्वक शिक्षण कैसे होना चाहिए , इसके लिए आवाज़ बुलंद नही की | केवल भत्ते को लेकर ही समाचारों में शिक्षक आन्दोलन की खबरें सुनने को मिलती हैं |
पिछले दस सालों में शिक्षकों को लेकर राजस्थान, हरियाणा , झारखण्ड , रांची में जितनी भी हडतालें हुईं हैं उनकी मांग में शिक्षकों ने अपने भत्ते ही हैं | शिक्षकों का इस तरह के आन्दोलन खड़े करना सरकार की शिक्षा को लेकर हवाई जिम्मेदारी ही दिखाता है | वहीँ दूसरी ओर अध्यापक बनने के लिए बी एड जैसी योग्यता सिर्फ एक खानापूर्ति बन गई है | बी एड उन्हें एक अच्छा अध्यापक बनने को प्रेरित नही करता बल्कि उन्हें सिर्फ सरकारी नौकरी पाने का जरिया बन गया है | आज कल अध्यापकों की नौकरी को आरामदायक नौकरी कहा जाने लगा है | राज्य सरकारों ने शिक्षा में कई तरह के बदलाव किये हैं उसमे सुधार लाने के लिए लेकिन ये सुधार के नाम पर सिर्फ सरकारी प्रपंच ही मालूम पड़ते हैं | सर्व शिक्षा अभियान राज्य स्तर पर सरकारी स्कूलों को संबल देती है भौतिक सुविधाओं में भी और अध्यापकों की ट्रेनिंग भी कराती है | लेकिन एसएसए की इस ट्रेनिंग में केवल खानापूर्ति और सरकार का ढकोसला है | इस तरह की कार्यशालाओं ने उन्हें ऊबने के लिए मजबूर कर दिया है |
शिक्षकों के उत्साहवर्धन के लिए हर साल राज्य और केंद्र सरकारें शिक्षकों को उनके काम के लिए इनाम वितरण करती है | लेकिन यह इनामी प्रक्रिया में इतना घालमेल है कि ऐसे शिक्षकों को इनाम मिल रहे है जो अन्य शिक्षकों को हतौत्साहित ही करते हैं | प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्राथमिक शिक्षा के ऊपर अपने वक्तव्य में कहा था कि बच्चों के सीखने कि गति में लगातार गिरावट आई है और अब हमें शिक्षा कि गुणवत्ता के लिए नामांकन और खर्च से निकल कर कक्षाकक्ष की तरफ ध्यान देना होगा | लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता के लिए जरूरी है अच्छे शिक्षकों का होना | जो सिर्फ बी एड कि डिग्री लेकर घूम रहे है |
वर्ष २००४-०५ से शिक्षा पर होने वाले सरकारी खर्च में लगातार बढ़ोतरी हुई है | यह खर्च २००४-०५ में हमारी जीडीपी का ३.३ प्रतिशत था और २०११-१२ में यह बढ़कर ४ प्रतिशत हो गया | हर साल शिक्षा को लेकर एक नई\ नीति और शिक्षा के ऊपर बढ़ रहा खर्च सिर्फ सरकार का कि मजबूरी दिखाता है | शिक्षा को लेकर किसी तरह कि कोई ठोस नीति नही है | प्राथमिक स्तर पर शिक्षा कि स्थिति यह बताती है कि शिक्षा के क्षेत्र में इस तरह से काम करने पर कुछ नही होगा | शिक्षक को उचित ट्रेनिंग दी जाये और शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे भ्रष्ट्राचार को ख़त्म होना होगा | और अगर ऐसे ही स्थितियों के साथ समझौता कर लिया गया तो भारत के पास शिक्षा के नाम पर सिर्फ नीतियों का झुनझुना ही बचेगा |
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