जब भी
हम फ्री का नाम सुनते हैं तो हमारे कान खड़े हो जाते हैं| फ्री का ट्रेंड जब से आया है तब से लोग
गुणवत्ता से ज्यादा फ्री वाले समान की ओर आकर्षित होते
हैं | फ्री मे आने वाला सामान
पैसे से खरीदे गए सामान से ज्यादा अच्छा लगने लगता है | उत्सवों के मौकों पर तो दो के ऊपर चार चीज़ें
फ्री मे मिलने लगती हैं | वैश्वीकरण
के बाद से इस प्रथा का चलन और भी तेज़ी से हुआ है | एक उत्पाद को बेचने के लिए उसके साथ एक ओर
उत्पाद फ्री के नाम पर बेचा जाए और यही है बिन्दु बाजारवाद के पनपने का | इस फ्री के नाम के कीड़े ने न सिर्फ बाज़ार को
काटा है बल्कि हमारी सरकारी व्यवस्था ने भी इसका इस्तेमाल जनता को लुभाने के लिए
किया है | अब चाहे वो पोलियो की दवा
हो या फिर प्राथमिक शिक्षा | देखिये
न प्राथमिक शिक्षा आपको फ्री के नाम पर मिल रही है | लेकिन वही बाज़ार के लोग इस फ्री प्रोडक्ट से
क्यों नहीं आकर्षित हो रहे हैं ? जबकि
शिक्षा के बाज़ार मे जितनी महंगी शिक्षा उतनी महंगी नौकरी का चलन चल रहा है | और जो लोग इस फ्री उत्पाद का इस्तेमाल कर रहे
हैं वे इसके चंगुल मे मजबूरी से फंसे है |
समय
के साथ साथ फ्री की परिभाषा मे भी बदलाव आया है | जो
उत्पाद खरीदे गए सामान के साथ मिले तो उसका फिर भी कुछ सम्मान हो लेकिन बिलकुल
फ्री मे यदि कोई सामान मिले तो दाल मे कुछ काला है | आज प्राथमिक शिक्षा हमारी सरकार के अलावा कई अन्य
संस्थान भी दे रहें हैं लेकिन फ्री मे नहीं | सरकार द्वारा शिक्षा का यह फ्री प्रोडक्ट न तो
अभिभावकों को आकर्षित कर रहा है न ही बच्चों को | मार्केटिंग का फंडा तो यही कहता है कि यदि
फ्री वाले प्रॉडक्ट से उत्पाद नही बिक रहा है तो फ्री वाले सामान की मात्रा बढ़ाओ
या कोई अन्य प्रॉडक्ट उतने ही कीमत का उसके साथ फ्री में दिया जाए जो कि पहले वाले
फ्री प्रॉडक्ट से ज्यादा आकर्षित करे | या फिर असली उत्पाद की गुणवत्ता से
समझौता कर लो | प्रतियोगिता
और मुनाफा कमाना ही फ्री प्रॉडक्ट को जन्म देने की जड़ दिखाई देती है | प्राथमिक शिक्षा मे तो देश भर मे छोटे से छोटे
गाँव से लेकर बड़े बड़े से शहर मे प्रतियोगिता है | लेकिन फिर भी हमारी सरकार अपने प्रॉडक्ट को
मजबूत नही बना रही है | कहा
जाता है कि सरकार देश के हित में कम करती है इसलिए वह प्रतियोगिता और मुनाफे से
कोसों दूर रहती है | लेकिन
सरकार इस सुंदर वाक्य के पीछे अपनी ही कमजोरी को
छुपाती है | अपने उत्पाद की गुणवत्ता को
कैसे सुधारा जाए इसके लिए उनके पास कोई फंडा नही है और रही बात मुनाफे की , तो वह तो अनेक साधनो से हो ही रहा है | चाहे इस प्रतियोगिता मे बिलकुल पीछे ही सरकार
क्यों न भाग रही हो |
असल
मे फ्री जैसा कुछ होता ही नही है | जब भी बाज़ार मे किसी भी
उत्पाद के साथ कुछ फ्री मे मिल रहा होता है तो कंपनी बिना कोई नुकसान उठाए उस
प्रॉडक्ट को फ्री मे बाज़ार मे उतारती है | फ्री वाले उत्पाद की कीमत मूल उत्पाद की कीमत मे सम्मिलित होती है | और जब बात करें शिक्षा की तो वह भी फ्री मे
नही मिलती है | जनता
के टैक्स से ही सरकार ये जिम्मा उठाती है | हालांकि सरकार आए दिन नई नई योजनाएँ चला रही
है लेकिन फिर भी फ्री शिक्षा अपना जादू नही चला पा रही है | इसका कारण समाज मे मौजूद कई रीतियाँ और परम्पराएँ हो सकती हैं जैसे कि
लड़कियों को स्कूल मे लाने के लिए सरकार ने बहुत सारी नीतियाँ बना दी हैं । इससे लड़कियां स्कूल तो आने लगी हैं लेकिन सिर्फ उन योजनाओं का पैसा लेने
के लिए | शिक्षा की महत्ता के नाम पर
नही | मार्केटिंग का ही एक और
फंडा यह है कि प्रॉडक्ट कि लौंचिंग से पहले उस उत्पाद का ब्रांड मैनेजमेंट हो जाए | लेकिन शिक्षा को लेकर इस तरह की ब्रांडिंग कुछ
याद नही आती है | याद
आता है जब काँग्रेस सरकार ने किसानो का 70 हज़ार करोड़ रुपए के ऋण को माफ किया था तो
सब नज़र आ रहा था कि हमारे देश की सरकार ऐसा कुछ महान काम कर रही है | मार्केटिंग के ही विभिन्न पहलुओं का इस्तेमाल
कर उन्होने यह बात लगभग देश के हर इंसान तक पहुंचा दी |
वैसे
तो सरकार ने अपने कई कार्यक्रमों मे सफलता भी प्राप्त की है जैसे कि पोलियो अभियान | उसके
कई कारण हो सकते हैं | इस
पोलियो अभियान मे सरकार का दूसरा कोई प्रतियोगी ही नही
था | सरकार को ही गाँव गाँव तक
जाकर ये काम पूरा करना था और बखूबी यह काम पूरा हुआ | सरकार ने कई तरह के तरीके अपनाएँ ताकि अपने
काम मे वह सफल हो पाये | इस
तरह मार्केटिंग के अलग अलग तरीके अपना कर कैसे काम किया जाए और वो भी सार्वजनिक
हित में यह एक बड़ा मुद्दा है |
शिक्षा
कभी भी सरकार के एजेंडे का हिस्सा नही रहा है शायद इसलिए ही मार्केटिंग के अनेक
तरीके इस क्षेत्र मे विफल होते दिखाई दे रहे है | सरकार
को यह देखना होगा कि किस कड़ी को मजबूत करने की आवश्यकता है | शिक्षक इस दिशा मे महत्वपूर्ण भूमिका निभा
सकते हैं | शिक्षा की इस प्रतियोगिता
में अन्य प्रतियोगियों से कैसे बाज़ी मारी जाए यह जानना बहुत जरूरी है | अगर सरकार यह जरूरी माने तभी ऐसा संभव है | नही तो उत्पाद की गुणवत्ता से समझौता तो हो ही
रहा है |
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